
परशुराम की प्रतीक्षा खण्ड 1,2,3 Parshuram ki Pratiksha Khand 1,2,3
Episode · 23 Plays
Episode · 23 Plays · 14:01 · Jul 18, 2023
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गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,प्यासी धरती के लिए अमृत लाने कोजो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।खण्ड-2हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,भारत अपने घर में ही हार गया है।है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,दैहिक बल को कहता यह देश गलत है।नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है; है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।खण्ड-3किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम; यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।सामने देश माता का भव्य चरण है,जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।फूटेगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,भर जायेगा नगराज रुण्ड-मुण्डों से।माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है, मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।आजन्म सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,सारी लपटों का रंग लाल होता है।जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं,हम भलीभाँति अघ को पहचान गये हैं।हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को,बम की महिमा को और विनय के बल को।हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे,वे सही, और हम विनयी बहुत गलत थे।जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठें वे;बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।साधना स्वयं शोणित कर धार रही है,सतलुज को साबरमती पुकार रही है।वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा,हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा।है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा ?बोलेगा जय वह भी, न खड़ग जो लेगा ।वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है,अपनी भूलों के लिए देश रोता है ।जिसका सारा इतिहास तप्त, जगमग है,वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है,जिसके इतने बेटे रण झेल चुके हैं,शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं,उस वीर जाति को बन्दी कौन करेगा ?विकराल आग मुट्ठी में कौन धरेगा ?केवल कृपाण को नहीं, त्याग-तप को भी,टेरो, टरो साधना, यज्ञ, जप को भी ।गरजो, तरंग से भरी आग भड़काओ,हो जहाँ तपी, तप से तुम उन्हें जगाओ।युग-युग से जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं,सिद्धियाँ धर्म की जो भी छिपी, धरी हैं,उन सभी पावकों से प्रचण्डतम रण दो,शर और शाप, दोनों को आमन्त्रण दो।चिन्तको ! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे ।ऋषियो ! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे ।योगियो ! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे ।बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे ।है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है,रण में समग्र भारत को ले जाना है ।पर्वतपति को आमूल डोलना होगा,शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा।असि पर अशोक को मुण्ड तोलना होगा,गौतम को जयजयकार बोलना होगा।यह नहीं शान्ति की गुफा, युध्द है, रण है,तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है ।ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है,हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है ।
14m 1s · Jul 18, 2023
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